हंगामा है कयों बरपा
Tuesday, 7 July 2009
साहित्य - अक़्बर इलाहाबादी
गायन - ग़ुलाम अली
हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है ।
डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है ॥
उस मय से नहीं मतलब दिल जिससे हो बेगाना ।
मकसूद है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है ॥१॥
उधर ज़ुल्फ़ों में कंघी हो रही है ख़म निकलता है ।
इधर रुक रुक के खिंच खिंच के हमारा दम निकलता है ॥२॥
इलाही ख़ैर हो उलझन पे उलझन बढ़ती जाती है ।
न उनका ख़म निकलता है न हमारा दम निकलता है ॥३॥
सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं ।
बुत हमको कहें काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है ॥४॥
वाँ दिल मे की सदमे दो या जी मे की सब सह लो ।
उन भी अजब दिल है मेरा भी अजब जी है ॥५॥
गर सियाह-बख़्त ही होना था नसीबों में मेरे ।
ज़ुल्फ़ होता तेरे रुख़सार कि या तिल होता ॥६॥
जाम जब पीता हूँ मुँह से कहता हूँ बिसमिल्लाह ।
कौन कहता है कि रिन्दों को ख़ुदा याद नहीं ॥७॥
ना-तजुर्बाकारी से वाइज़ की यह बातें हैं ।
इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है ॥८॥
हर ज़र्रा चमकता है अन्वर-ए-इलाही से ।
हर साँस यह कहती है हम है तो ख़ुदा भी है ॥९॥
बेगाना=alien/strange
ख़म=Curls (of hair)
सियाह=स्याह=ink (black)
बख़्त=fortune/destiny
सियाह-बख़्त=dark destiny/misfortune
रिन्द=drunkard
फ़ितरत=nature
बुत=idol/statue
वाइज़=lecture/preaching
ज़र्रा=particle (of dust)
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