तुम मेरी राखो लाज हरी
Tuesday, 7 July 2009
साहित्य-सूरदास
तुम मेरी राखो लाज हरी ।
तुम जानत सब अंतर्यामी ।
करनी कछु न करी॥
अवगुण मो से बिसरत नाही
पल छिन घऱी घऱी ।
सब प्रपंच के पोट बांधिके
अपने सीस धरी॥१॥
दारा सुत धन मोह लिये हैं
सुधी सुधी सब बिसरी ।
सूर पतित को बेग उधारो
अब मेरी नाव भरी॥२॥
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