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दायम पड़ा हुआ

Tuesday, 7 July 2009

साहित्य - मिर्ज़ा ग़ालिब


दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं ।
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे के पथ्थर नहीं हूँ मैं ॥

क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाये दिल ।
इन्सान हूँ, प्याला-ओ-साग़र नहीं हूँ मैं ॥१॥

या रब! ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिये ।
लौह-ए-जहाँ पे हर्फ़-ए-मुकर्रर नहीं हूँ मैं ॥२॥

हद चाहिये सज़ा में उक़ूबत के वास्ते ।
आख़्हिर गुनाहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं ॥३॥

किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे ।
लाल-ओ-ज़ुमरूद-ओ-ज़र-ओ-गौहर नहीं हूँ मैं ॥४॥

रखते हो तुम क़दम मेरी आँखों से क्यूं दरेग़ ।
रुतबे में मह्र-ओ-माह से कमतर नहीं हूँ मैं ॥५॥

करते हो मुझको मना-ए-क़दम्बोस किस लिये ।
क्या आस्माँ के भी बराबर नहीं हूँ मैं ॥६॥

'ग़ालिब' वज़िफ़ाख़्ह्वार हो, दो शाह को दुआ ।
वो दिन गये कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं ॥७॥

दायम=हमेशा
गर्दिश=बद किस्मती
मुदाम=हमेशा
हर्फ़=अक्शर (alphabet)
मुकर्रर=फ़िर से
उक़ूबत=दर्द
लाल=ruby
ज़ुमुरूद=emerald
ज़र=सोना (gold)
गौहर=मोती (pearl)
दरेग़=छुपा हूआ (concealed)
मह्र=सूरज
माह=चाँद
बोस=चुंबन
वज़िफ़ाख़्ह्वार (wazifaa_Khwaar)=pensioner

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