यह दिल, यह पागल दिल मेरा
Tuesday, 7 July 2009
साहित्य - मोहसिन नक़्वी
गायन - ग़ुलाम अली
यह दिल, यह पागल दिल मेरा, क्यों बुझ गया, आवारगी ।
इस दश्त में एक शहर था, वह क्या हुआ? आवारगी ॥
कल शब मुझे बे-शक्ल सी आवाज़ ने चौँका दिया ।
मैं ने कहा, तू कौन है? उस ने कहा, आवारगी ॥१॥
एक तू कि सदियों से मेरे हमराह भी हमराज़ भी ।
एक मैं कि तेरे नाम से ना-आश्ना, आवारगी ॥२॥
यह दर्द की तनहाइयाँ, यह दश्त का वीराँ सफ़र ।
हम लोग तो उकता गये, अपनी सुना, आवारगी ॥३॥
एक अजनबी झोंके ने जब पूछा मेरे ग़म का सबब ।
सहरा की भीगी रेत पर मैं ने लिखा, आवारगी ॥४॥
ले अब तो दश्त-ए-शब की सारी (सब ही) वुस'अतें सोने लगीं ।
अब जागना होगा हमें कब तक बता, आवारगी ॥५॥
लोगों भला उस शहर में कैसे जियेंगे हम ।
जहाँ हो जुर्म तनहा सोचना, लेकिन सज़ा आवारगी ॥६॥
कल रात तनहा चाँद को देखा था मैं ने ख़्वाब में ।
'मोहसिन' मुझे रास आयेगी शायद सदा आवारगी ॥७॥
आवारगी=vagabondage
दश्त=desert
बे-शक्ल=faceless
शब=night
ना-आश्ना=unfamiliar
उकता गये=got bored
ग़म का सबब=Reason for sorrow
वीराँ=wilderness, abandonment
मोहसिन=beneficent/generous
रास आना=to like
वुस'अतें=फैलाव, spread(noun)
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