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शाम-ए-ग़म जब बिखर गयी होगी

Tuesday, 27 September 2011

साहित्य - मोहसिन नक़्वी
गायन - ग़ुलाम अली


शाम-ए-ग़म जब बिखर गयी होगी ।
जाने किस किस के घर गयी होगी ॥

इतनी लरज़ाँ न थी चराग़ की लौ ।
अपने साये से डर गई होगी ॥१॥

चांदनी एक शब की मेहमान थी ।
सुबह होते ही मर गयी होगी ॥२॥

देर तक वह ख़फ़ा रहे मुझ से ।
दूर तक ये ख़बर गयी होगी ॥३॥

एक दरिया का रुख़ बदलते ही ।
एक नदी फिर उतर गयी होगी ॥४॥

जिस तरफ़ वो सफ़र पे निकला था ।
सारी रौनक उधर गई होगी ॥५॥

रात सूरज को ढूँढने के लिए ।
ता-बा- हद-ए-सेहर गयी होगी ॥६॥

मेरी यादों की धुप छाओं में ।
उस की सूरत निखर गयी होगी ॥७॥

याँ तालुक न निभ सका उस से ।
याँ तबियत ही भर गयी होगी ॥८॥

तेरी पल भर की दोस्ती ।
उस को बदनाम कर गयी होगी ॥९॥


लरज़ाँ = quiver

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