श्रीरामचन्द्र कृपालु भजु मन
Thursday, 21 May 2009
साहित्य - तुलसीदास
श्रीरामचन्द्र कृपालु भजु मनहरण भवभय दारुणम् ।
नवकञ्जलोचन कञ्जमुख करकञ्ज पद कञ्जारुणम् ॥१॥
कंदर्प अगणित अमित छबि नव नील नीरज सुन्दरम् ।
पटपीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरम् ॥२॥
भजु दीनबन्धु दिनेश दानवदैत्यवंश निकन्दनम ।
रघुनन्द आनंदकंद कोशलचंद दशरथ नन्दनम् ॥३॥
सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणम ।
आजानुभुज शरचापधर संग्राम जित खरदूषणम् ॥४॥
इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मनरञ्जनम ।
मम हृदयकञ्ज निवास कुरु कामादि खलदलमञ्जनम् ॥५॥
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो ।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥६॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषी अल ।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥७॥
सो. – जानि गौरि अनुकूल रिय हिय हरषु न जाइ कह ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥८॥
॥ सियावर रामचन्द्र की जय ॥
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