खुली जो आँख तो वो था
Saturday, 8 February 2014
साहित्य - फ़रहात शहज़ाद
गायन - मेहदी हसन
खुली जो आँख तो वह था न वह ज़माना था ।
दहकती आग थी, तन्हाई थी, फ़साना था ॥
ग़मों ने बाँट लिया मुझे यूँ आपस में ।
के जैसे मैं कोई लूटा हुआ ख़ज़ाना था ॥१॥
यह क्या के चंद ही क़दमों पे थक के बैठ गये ।
तुम्हें तो साथ मेरा दूर तक निभाना था ॥२॥
मुझे जो मेरे लहू में डुबो के गुज़रा है ।
वह कोई ग़ैर नहीं यार एक पुराना था ॥३॥
खुद अपने हाथ से 'शह्ज़ाद' उस को काट दिया ।
के जिस दरख़्त के टहनी पे आशियाना था ॥४॥
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