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रन्जिश ही सही

Tuesday 7 July 2009

साहित्य - अहमद फ़राज़
गायन - मेहदी हसन


रन्जिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ ।
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ ॥

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो ।
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिये आ ॥१॥

किस किस को बतायेंगे जुदाई का सबब हम ।
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिये आ ॥२॥

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मुहब्बत का भरम रख ।
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिये आ ॥३॥

एक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिरिया से भी महरूम ।
ऐ राहत-ए-जाँ मुझ को रुलाने के लिये आ ॥४॥

अब तक दिल-ए-ख़ुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें । (/को हैं तुझ से उम्मीदें)
ये आख़िरी शम्में भी बुझाने के लिये आ ॥५॥

The following ashaar are by Talib Baghpati but Mehdi Hassan always sings them as part of this Gazal.

माना कि मुहब्बत का छिपाना है मुहब्बत ।
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिये आ ॥६॥

जैसे तुझे (/तुम्हे) आते हैं न आने के बहाने ।
ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिये आ ॥७॥

रन्जिश=Enemity/hatred
मरासिम=relation/association
रस्म-ओ-रह=Customs & traditions
लज़्ज़त-ए-गिरिया=Taste of grief/tears
सबब=reason
ख़फ़ा=angry
पिन्दार-ए-मुहब्बत=pride/depth of love
महरूम=devoid of
राहत-ए-जाँ=peace of life
दिल-ए-ख़ुशफ़हम=Optimistic/expecting heart
शम्में=Candles/Lights

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