दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
Sunday, 24 December 2017
साहित्य - मिर्ज़ा ग़ालिब
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ ।
मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ ॥
जमा करते हो क्यों रक़ीबों को? ।
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ ॥१॥
हम कहां क़िस्मत आज़माने जाएं? ।
तू ही जब ख़ंजर-आज़मा न हुआ ॥२॥
कितने शीरीं हैं तेरे लब! कि रक़ीब ।
गालियां खाके बे-मज़ा न हुआ ॥३॥
है ख़बर गर्म उनके आने की ।
आज ही घर में बोरिया न हुआ ॥४॥
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी ।
बंदगी में मेरा भला न हुआ ॥५॥
जान दी, दी हुई उसी की थी ।
हक़ तो यूं है, कि हक़ अदा न हुआ ॥६॥
ज़ख़्म गर दब गया, लहू न थमा ।
काम गर रुक गया रवां न हुआ ॥७॥
रहज़नी है कि दिल-सितानी है? ।
लेके दिल दिलसितां रवाना हुआ ॥८॥
कुछ तो पढ़िये कि लोग कहते हैं ।
आज ‘ग़ालिब’ ग़ज़ल-सरा न हुआ ॥९॥
मिन्नत=favour, kindness
मिन्नत-कश-ए-दवा=Obliged To Medicine
रक़ीब=rival, competitor, enemy, opponent
शीरीं=sweet, मीठा
बोरिया=matresses
रवां =right, admissible, lawful, current
रहज़नी=robbery
दिल-सितानी=fascinating, alluring
दिल-सिताँ=stealer of one's heart, lover
ग़ज़ल-सरा=one who reads or recites Gazals
Audio Link : Muhammad Rafi
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