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हजारों ख्वाहिशें ऐसी

Thursday, 4 October 2012

साहित्य - मिर्ज़ा ग़ालिब


हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले ।
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले ॥

डरे क्यूं मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर ।
वह ख़ून जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले ॥१॥

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन ।
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले ॥२॥

भरम खुल जाये ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का ।
अगर उस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले ॥३॥

मगर लिखवाये कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाये ।
हुई सुबह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले ॥४॥

हुई इस दौर में मनसूब मुझ से बादा-आशामी ।
फिर आया वह ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले ॥५॥

हुई जिन से तवक़्क़ू ख़स्तगी की दाद पाने की ।
वह हम से भी ज़्यादा ख़सता-ए-तेग़-ए-सितम निकले ॥६॥

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का ।
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले ॥७॥

(apocryphal verse)
ज़रा कर ज़ोर सीने पर कि तीर-ए-पुरसितम निकले ।
जो वह निकले तो दिल निकले जो दिल निकले तो दम निकले ॥८॥

(apocryphal verse)
ख़ुदा के वास्ते पर्दा ना क़ाबे से उठा ज़ालिम ।
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफ़िर सनम निकले ॥९॥

कहां मयख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहां वाइज़ ।
पर इतना जानते हैं कल वह जाता था कि हम निकले ॥१०॥


चश्म-ऐ-तर=गीली आँखें
खुल्द=जन्नत
कूचे=गली
क़ामत=stature
दराजी=लंबाई
तुर्रा=पगड़ी मे पहननेवाले तुराई
पेच-ओ-ख़म=curls in the hair
मनसूब=association
बादा-आशामी=पीने से संबंधित
तव्वको=उम्मीद
खस्तगी=घाव
खस्ता=टूटा हुआ/घायल/मरीज़
तेग=तलवार

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